Wednesday 2 January 2019

नम आखोँ से दादी जी को अलविदा और भावभिनी श्रधाँजली

दादी जी का जन्म अनुमानित सन 1919 से 1921 के मध्य हुआ था और लगभग 100 साल की उम्र मे आज दिनाँक 01/01/2019 को रात्री के 10 बजे दादी जी ने अंतिम साँस ली । दादी जी को अश्रुपुर्ण श्रधाँजली और परमपिता परमात्मा उनकी आत्मा को अपने चरणो मे स्थान दे यही हम प्रार्थना करते है ।
दादी जी का जन्म उस समय हुुआ जब भारत के इतिहास मे पहली बार सूखे और गरीबी के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौते हुई थी और भारत की अवादी घटने लगी थी । दादी जी उस जमाने की बाते बतायी करती थी थी कि किस तरह से एक वक्त की रोटी के लिए कठिन परिश्रम करना पडता था । मात्र 13 साल की उम्र मे दादी जी की शादी हो गयी थी और तत्पश्चात 13 बच्चोँ का जन्म और उनका भरण - पोषण करना कितना मुस्किल था यह दादी हमे बताती थी ।

दादी जी बताती थी कि वार्टर सिस्टम के तहत खाने की वस्तुओँ का आदान प्रदान होता था लेकिन नमक और ग़ुड के लिए "ढाकर" ऋषिकेश तक जाना पडता था क्योंकि नमक और चीनी पहाडोँ मे नही होता था । "ढाकर" के लिए लिए गाँव के आदमियोँ का एक समूह गाँव से ऋषिकेश के लिए निकलते थे और जगल के पैदल रास्तो से होकर 1 महिने बाद गुड और नमक ले कर आते थे । उस समय गाँव मे सडक की ब्यव्स्था नही थी इसलिए पैदल रास्ते से होकर जाना पडता था, माळू की टांटियोँ के चप्पल बनाये जाते थे और रास्ते मे रुककर जँगलोँ से कंदमुल फलोँ को भुनकर खाते थे साथ ही पत्त्थरो को गर्म करके उनमे रोटियाँ बनायी जाती थी और जब 1 महिने बाद ढाकरी गाँव पहुँचते थे तो उनके पैरोँ मे बडे बडे छाले होते थे । 

दादी बताती थि कि गाँव मे घी, अनाज एत्यादि लेकर राजा के यहाँ कर के रुप मे उसे पहुँचाते थे, एक गाँव वाले दुसरे गाँव तक और दुसरे गाँव वाले वहा से आगे राजा के दरबार तक यह सामान पहुँचाते थे ।
खाने के लिए जब कुछ नही होता था तो पिन्ना (तिल से तेल निकालने के बाद जो रौ मटिरियल बचता है पिन्ना कहलाता है) खाया करते थे साथ ही गेँठी, तैड, और बसिगुँ उबालने के बाद उसे खा कर पेट की भुख मिटाते थे, बरतन न होने के कारण परिवार मे 13 बच्चे एक ही परात (बडी सी थाली) मे खाना खाते थे, मेरे दादा जी बच्चोँ को खिलाने के लिए सिर्फ परात मे हाथ रखते थे लेकिन खाना नही खाते थे क्योंकि वह बस बच्चोँ का पेट भरना चाहते थे । 

मेरा दादी जी से अधिक लगाव रहा है जब भी समय मिलता था दादी जी के साथ मे बैठ जाता था और उस जमाने की बाते पुछा करता था, दादी जी को भी अपने दिनो की यादोँ को साझा करने मे अच्छा लगता था । मैंने महसुस किया है कि यदि हम बुजुर्गोँ के साथ बैठ कर थोडा बहुत उनके साथ बातेँ करे तो उन्हे बहुत अछा लगता है ।
आज दादी जी भले ही वैकुँठ धाम पधार गये है लेकिन आपके द्वारा दी गयी शिक्षा, जानकारियाँ और आपकी यादेँ सदा हमारे साथ रहेगी जो कि मैंने कुछ जानकारियाँ लिख कर सग्रँह कर लिए है और कुछ अपने मस्तिष्क मे याद कर ली है जो के हमेशा मेरे साथ रहेगी ।
दादी जी को एक बार पुँन भावभिनी श्रधाँजली
आपकी यादेँ सदा हमारे दिलोँ मे रहेगी ।
अलविदा दादी जी ॥

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