पर पीड़ा से दुःख पहुंचे जो
प्राणियों से प्रेम करता है,
करुणामय हर्दय जिसका
"दयालुता" कहलाता है ||
सत्य का साथी झूठ विरोधी
जो मानव अपनाता है,
"मानवता" धर्म निभाकर
"दयालुता" कहलाता है ||
दयालु जीवन पाकर के जो
परोपकारिता करता है,
दया धर्म और कर्म है पूजा
सबसे बड़ा धर्म निभाता है ||
छोड़ के "दयालुता" को जो
अभिमानी बन जाता है,
बिन "दया" के मानव न ओ
दानव कहलाता है ||
पहला गुण मानव का ये
"दयालुता" कहलाता है,
"मानवता" धर्म निभाकर
"दयालुता" कहलाता है ||
भाई आज आपकी म्रत्यु के 3 महिने पुर्ण हो गए है । आज ही के दिन 10/04/2019 की सुबह वह अशुभ घडी थी जब आप इस दुनियाँ से चल बसे थे । वैसेँ तो जो इस दुनियाँ मे जो आया है उसका जाना भी सुनिश्चित है और यही जीवन का सत्य है परंतु मात्र 44 साल की अल्प आयु भी कोई जाने की उम्र होती है क्या ? आपका इस तरह से चले जाना और फिर कभी आपको न देख पाना इस कटु सत्य को स्वीकारना हम सब के लिए इतना आसान नही है । आपके चले जाने से येसा लग रहा है जैसेँ मानो सारी दुनियाँ मे अंधकार ही अंधकार सा छाया हो । बचपन की उन यादोँ को याद कर करके आखोँ से आंशुँ टपकने लगते है । हम तो किसी भी तरह से अपने दिल को मना लेते है लेकिन माँ जी, पिताजी जी का जो हाल है वह बयाँ नही कर सकता । माँ जी बहुत कमजोर पड चुकी है क्योंकि मात्र 26 साल की उम्र मे दीदी के इस दुनिया से चले जाने को वह हमेशा याद कर कर के रोती रहती थी लेकिन अब तो आप भी नही रहे तो और भी मुस्किल हो गय है । आपसे मुझे इस बात का भी शिकायत है कि आप हर रोज जो माँ जी और पिताजी को फोन करते थे वह आज भी आपके फोन का ईंतजार करते है इसलिए हर दिन अब मुझे फोन करना पडता है और मैँ यह आपके जाने के बाद बखुबी निभा रहा हूँ ।
भाई आपकी अल्प म्रत्यु हो जाने से आप जो भी इस मनुष्य जन्म की जिम्मेदारियोँ जैसेँ बच्चोँ की पढाई और उनकी शादी ईत्यादी को पुर्ण न कर सके, उन सभी जिम्मेदारियोँ को पुर्ण करने हेतु मै आपको बचन देता हूँ, आप जँहा कहीँ भी रहेँ सुख और शांति से रहेँ यही मै परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ । काश की प्रभू हमे इतना सा मौका दे देते कि आपको होस्पिटल तक ले जा पाते भले ही होस्पिटल मे ईलाज के दौरान यह अनहोनी हो जाती लेकिन हमे शकुन मिलता है कि हमने एक कोशिस तो की थी ।
आपकी हर एक यादोँ को मैंने सम्भाल के रखा है । आपकी हर एक भेजी हुई चिठ्ठी मैंने सम्भाल के रखी है और जीवन पर्यंत इन यादोँ को अपने साथ रखुँगा ।
पहाडोँ से होता पलायन गभीर विषय है, पलायन के कारण और पलायन को रोकने के उपायोँ पर मेरे विचार :-
एक तरफ
जहाँ उत्तराखँड की खुबसुरत वादियोँ, कल कल छल छल करती नदियाँ, झरनोँ एँव प्राक्रतिक सौंदर्य को देखने के लिए देश विदेश से
सैलानियोँ का तांता लगा हुआ है वहीँ दुसरी ओर यह हमारा बहुत बडा दुर्भाग्य है कि यहाँ
के मूल निवासी यहाँ से पलायन करते जा रहेँ है । पलायन को रोकने के लिए उत्तराखँड
सरकार ने पलायन आयोग का गठन भी किया लेकिन पलायन आयोग का गठन मात्र करने से हम
पलायन नही रोक सकते बल्कि सरकार और समाज दोनो को मिलकर पलायन के कारणो और पलायन को
रोकने के उपायोँ पर कार्य करने की आवश्यक्ता है ।
वैसे
तो पलायन के बहुत सारे मुख्य कारण है लेकिन मेरी नजर मे जो 4 मुक्यकारण है वह है ।
१. जीवन
यापन हेतु “रोजगार” का अभाव
२ बेहतर
शिक्षा का अभाव
३
स्वास्थ्य सुविधाओँ का अभाव
४.
मूलभूत सुविधाओ का अभाव
सर्वप्रथम
"रोजगार"पलायन का मुक्य कारण है और पलायन आयोग ने भी अपनी
रिपोर्ट मे शायद यह कहा है कि 50% लोग रोजगार की तलाश मे पहाडोँ से पलायन करते
है जिसमे की सबसे ज्यादा युवा वर्ग है जिनकी उम्र 26-35
वर्ष
है इन आकडॉ से साफ होता है कि यदि हमे उत्तराखडँ मे रोजगार के अवस्रर मिल जाये तो
हर कोई वापस अपनी देवभूमी मे रहना पसँद करेगा ।
·सरकार रोजगार के अवसर के लिएछोटे छोटे लघु उध्योगोँ की स्थापना करेँ।
·पढे लिखे युवाओँ को सस्ती दरोँ पर बैकँ से लौन
मिले ताकि वह अपना रोजगार शुरु कर सके ।
·ग्रामिण महिलाओँ के लिए स्वरोजगार के लिए
छोटी छोटी कोओपरेटिव सोसाईटियोँ का निर्माण करवायेँ जाय ।
·उत्तराखँडॅ के किसानो को और्गेनिक फुड के लिए
प्रेरित करते हुये वहाँ के और्गेनिक फुड को अंतराष्टीय बाजार तक पहुँचाने मे सरकार
मदद करेँ
·उत्तराखँडॅ मे पर्यटन की अपार सम्भावनायेँ है
उसके लिए कुछ पर्यटन स्थलोँ को विकसित किये जाय । ऋषिकेश, हरिद्वार, अल्मोडा और नैनिताल जैसे जगहोँ को योग और आयुर्वेद के केंद्र के तर्ज पर
विकसित किये जाय ।
एत्यादि
बहुत सारे सम्भावनाये है लेकिन उन पर कार्य करने की आवश्यक्ता है ।
दुसरी
सबसे बडी कारण हैबेहतर शिक्षा का अभाव- हर कोई चाहता है कि वह चाहे जैसेँ भी रहेँ पर अपने बच्चोँ
को अच्छा सा पढा लिखा कर एक अच्छा ईंसान बनाएँ । अच्छी शिक्षा के लिए यह जरुरी नही कि उत्तराखँडॅ मे प्राईवेट स्कुलेँ
खोले जायबल्कि उसके लिए जरुरी है कि सरकारी स्कूलोँ को
प्राईवेट स्कूलोँ के तर्ज पर विकसित किये जाय और इन सरकारी स्कूलोँ मे बच्चोँ को प्राईवेट
स्कूलोँ से भी बेहतर शिक्षा मिले ।
आखिर
क्या कारण है कि प्राईवेट स्कूल के अध्यापको की सेलरी सरकारी स्कूलोँ के अध्यापकोँ
की तुलना मे कम होने के बाबजुद भी वह और अच्छा सा पढा पाते है और प्राईवेट स्कोलोँ
के पढे बच्चे ज्यादा कामयाब होते है हमे इस विचार्धारा को तोडने की आवश्यक्ता है ।
इसके लिए सरकार एँव सरकार के अधिकारियोँ को चाहिए कि वह स्वयँ कभी कभी स्कूलोँ मे
सरप्राईज विजिट करेँ और वहाँ पर अनुपस्तिथ रह रहे अध्यापको के खिलाफ कार्यवाही
करते हुए शिक्षा के स्तर का आकँलन करेँ । सरकार स्कूलोँ मे इंसपेकशन के लिए
अधिकारियोँ के एक टीम का गठन करेँ और यह टीम हर साल हर स्कूल मे इंसपेशन करेँ और
इंसपेक्शन रिपोर्ट के अनुसार स्कूल की रेटिगँ हो। इस इंसपेकशन मे अच्छे रेटिग पाने
वाले स्कूलोँ और वहाँ के अध्यापको को प्रोतसाहित किया जाय और जिन स्कूलोँ की
रेटिंग बहुत खराब आयी है उन्हे अगले साल अपनी पढाई के स्तर को बढाने के लिए दबाब
बनाया जाय यह मै इसलिए कह रहा हूँ क्योकिँ मै स्वयँ यहा पर शिक्षा के क्षेत्र मे
कार्यरत हूँ और यहाँ पर येसा ही होता है ।
पलायन
का तीसरा जो मुख्य कारण है वह हैस्वास्थ्य सुविधाओँ का अभाव- उत्तराखँड मे स्वास्थ्य
सुविधाओँ के अभाव मे आये दिन हम न्युज चैनलोँ के माध्यम से सुनते रहते है कि
स्वास्थ्य सुविधाओँ के अभाव मे किसी पेसेंट को एमर्जेंसी मे नजदिकी असपताल तक
पहुँचाने के लिए पालकियोँ और डॅडियोँ के माध्यम से मीलोँ दुर चलना पडता है कभी कभी
तो समय पर होस्पिटल न पहुँच पाने के कारण अनहोनी भी सुनने को मिलती है। सवयँ मेरी
बडी बहन जिसकी उम्र मात्र 26 साल थी प्रसव पीडा के दौरान पालकियोँ के
सहारे होस्पिटल ले जाते हुए इस दुनिया से चल बसी । सरकारी क्लिनिक जो नाम मात्र के
कुछ जगहो पर खोले गये है वहाँ पर भी यदि डाक्टर और दवाईया एक साथ मिल गये तो यह भी
कोई चमात्कार से कम नही इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओ पर ध्यान देना अतिआवश्यक्ता है ।
चौथी मुख्य
कारण है वह है “मूलभूत सुविधाओँ का अभाव”गांवों में रोजगार और शिक्षा
के साथ-साथ बिजली, पानी, आवास, सड़क और संचारजैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों
की तुलना में बेहद कम है जो कि पलायन का चौथा मुख्य कारण है । जिस सुगमता से शहर मे जीवन
यापन हेतु मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध है उसकी तुलना मे पहाड का जीवन पहाड जैसे संघर्ष
भरा है क्योंकि हर एक वस्तु के लिए आपको मिलो चलना पडता है । यदि खेती भी करेँ तो
जगलीँ जानवरोँ का आतँक बहुत बढ गया है ।
आदि
बहुत सारे कारण है लेकिन उन सभी कारणो मे से यह 4 कारण मुख्य है जिस पर सरकार
और समाज दोनो को कार्य करने की आवश्यक्ता है | मेरी सरकार से
निवेदन है कि यदि सच्चे अर्थो मे आप उत्तराखँड से पलायन रोकना चाहते हो तो सबसे
पहले गैरसैण को उत्तराखँड की स्थायी राजधानी बनाओ तभी जाकर आप पहाड के दर्द को समझ
सकते है और उस पर कार्य कर सकते है साथा ही मै निवेदन
करता हूँ अपने सभी प्रवासी उत्तराखँडी भाई बहनो से कि वह जहाँ कहीँ भी रहेँ साल मे
एक बार अपनी जडोँ से जुडे रहने हेतु एक बार अपने पैत्रिक भूमी उत्तराखँड अवश्य
जायेँ ।
दादी जी का जन्म अनुमानित सन 1919 से 1921 के मध्य हुआ था और लगभग 100 साल की उम्र मे आज दिनाँक 01/01/2019 को रात्री के 10 बजे दादी जी ने अंतिम साँस ली । दादी जी को अश्रुपुर्ण श्रधाँजली और परमपिता परमात्मा उनकी आत्मा को अपने चरणो मे स्थान दे यही हम प्रार्थना करते है ।
दादी जी का जन्म उस समय हुुआ जब भारत के इतिहास मे पहली बार सूखे और गरीबी के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौते हुई थी और भारत की अवादी घटने लगी थी । दादी जी उस जमाने की बाते बतायी करती थी थी कि किस तरह से एक वक्त की रोटी के लिए कठिन परिश्रम करना पडता था । मात्र 13 साल की उम्र मे दादी जी की शादी हो गयी थी और तत्पश्चात 13 बच्चोँ का जन्म और उनका भरण - पोषण करना कितना मुस्किल था यह दादी हमे बताती थी ।
दादी जी बताती थी कि वार्टर सिस्टम के तहत खाने की वस्तुओँ का आदान प्रदान होता था लेकिन नमक और ग़ुड के लिए "ढाकर" ऋषिकेश तक जाना पडता था क्योंकि नमक और चीनी पहाडोँ मे नही होता था । "ढाकर" के लिए लिए गाँव के आदमियोँ का एक समूह गाँव से ऋषिकेश के लिए निकलते थे और जगल के पैदल रास्तो से होकर 1 महिने बाद गुड और नमक ले कर आते थे । उस समय गाँव मे सडक की ब्यव्स्था नही थी इसलिए पैदल रास्ते से होकर जाना पडता था, माळू की टांटियोँ के चप्पल बनाये जाते थे और रास्ते मे रुककर जँगलोँ से कंदमुल फलोँ को भुनकर खाते थे साथ ही पत्त्थरो को गर्म करके उनमे रोटियाँ बनायी जाती थी और जब 1 महिने बाद ढाकरी गाँव पहुँचते थे तो उनके पैरोँ मे बडे बडे छाले होते थे ।
दादी बताती थि कि गाँव मे घी, अनाज एत्यादि लेकर राजा के यहाँ कर के रुप मे उसे पहुँचाते थे, एक गाँव वाले दुसरे गाँव तक और दुसरे गाँव वाले वहा से आगे राजा के दरबार तक यह सामान पहुँचाते थे । खाने के लिए जब कुछ नही होता था तो पिन्ना (तिल से तेल निकालने के बाद जो रौ मटिरियल बचता है पिन्ना कहलाता है) खाया करते थे साथ ही गेँठी, तैड, और बसिगुँ उबालने के बाद उसे खा कर पेट की भुख मिटाते थे, बरतन न होने के कारण परिवार मे 13 बच्चे एक ही परात (बडी सी थाली) मे खाना खाते थे, मेरे दादा जी बच्चोँ को खिलाने के लिए सिर्फ परात मे हाथ रखते थे लेकिन खाना नही खाते थे क्योंकि वह बस बच्चोँ का पेट भरना चाहते थे ।
मेरा दादी जी से अधिक लगाव रहा है जब भी समय मिलता था दादी जी के साथ मे बैठ जाता था और उस जमाने की बाते पुछा करता था, दादी जी को भी अपने दिनो की यादोँ को साझा करने मे अच्छा लगता था । मैंने महसुस किया है कि यदि हम बुजुर्गोँ के साथ बैठ कर थोडा बहुत उनके साथ बातेँ करे तो उन्हे बहुत अछा लगता है ।
आज दादी जी भले ही वैकुँठ धाम पधार गये है लेकिन आपके द्वारा दी गयी शिक्षा, जानकारियाँ और आपकी यादेँ सदा हमारे साथ रहेगी जो कि मैंने कुछ जानकारियाँ लिख कर सग्रँह कर लिए है और कुछ अपने मस्तिष्क मे याद कर ली है जो के हमेशा मेरे साथ रहेगी ।
दादी जी को एक बार पुँन भावभिनी श्रधाँजली आपकी यादेँ सदा हमारे दिलोँ मे रहेगी । अलविदा दादी जी ॥