Tuesday 4 October 2011

चुटकी

जिसको चुटकी समझ बैठा था
वह तो एक मुट्ठी निकली.....
मुट्ठी खोल के देखा जब तो !
प्यार की एक चिट्ठी निकली ।
चिट्ठी खोल के पढने लगा तो
प्यार का एक ग्रंथ वह निकली
दिल मे प्यार बहुत है लेकिन !
जो चाह ओ पा नही सकती...।
खेल-खेल मे हो गया ये तो
येसा मै नही चिट्ठी कहती !
मुट्ठी को मालुम न था कि....
हाथो की रेखा एक जैसे ना होती ।
भाग्य से येसा होता है कि....
चार हाथो की रेखायें मिलती
जिस रेखा को देखना चाहते !
ओ रेखा बहुत कम है बनती ।
जिसको चुटकी समझ बैठा था
वह तो एक मुट्ठी निकली.....

मुट्ठी खोल के देखा जब तो !
प्यार की एक चिट्ठी निकली ।

सर्वाधिकार सुरक्षित @ विनोद जेठुडी
4 अक्टुवर 2011 @ 4:45 PM

(किसी के द्वारा किसी के माध्यम से किसी के लिये)

7 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया।

    सादर

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  2. वाह ...बहुत बढि़या।

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  3. बहुत खूब...........

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  4. यशवंत जी सदा जी विद्या जी & अनामिका जी आप सब का बहुत बहुत धन्यबाद आप सभी लोगो ने मेरी रचना को सराहा अच्छा लगा ..

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  5. Dhanybaad Mukesh kumar ji. aap mere blog me aaye aur rachna aap ko achhi lagi ..aabhar

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