Saturday 3 December 2016

शहर मे मेरा गाँँव खो गया है

वह बरगद का पेड
वह बचपन के झुले 
वह मिट्टी के खिलौने 
वह गाँव के मेले

वह ताँगे की सवारी
वह पुरानी बैलगाडी
वह गाँव की खुशहाली
वह हरी - भरी हरियाली
वह चिडियोँ का चहकना
वह फूलोँ का महकना
वह मिट्टी की खुशबू 
वह बारिश का आना


वह पनचखी का आटा
वह चुल्हे की रोटी
वह स्कूल से आना 
वह माँ के हाथ का खाना
वह खेतोँ मे जाना 
वह हल लगाना 
वह गायेँ चुगाना
वह घास ले के आना

वह मेल मिलाप से रहना
वह एक दुसरे के काम आना
वह मिल बाँट के खाना
वह प्रेम और भाईचारा का गाँव 
आज शहर मे तब्दिल हो गया है
शहर की उँची उँची इमारतोँ  मे 
ओ मेरा गाँँव कँँही खो गया है :( 

© Vinod Jethuri on 30/11/2016


2 comments:

  1. धीरे-धीरे गांव का कंक्रीट में तब्दील होना अखर रहा है
    बहुत सही।

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  2. Dhanyawaad kavita ji pasand karne ke liye...

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